Kamakhya Chalisa – कामाख्या चालीसा

॥ दोहा ॥

सुमिरन कामाख्या करुँ, सकल सिद्धि की खानि ।
होइ प्रसन्न सत करहु माँ, जो मैं कहौं बखानि ॥

जै जै कामाख्या महारानी । दात्री सब सुख सिद्धि भवानी ॥

कामरुप है वास तुम्हारो । जहँ ते मन नहिं टरत है टारो ॥

ऊँचे गिरि पर करहुँ निवासा । पुरवहु सदा भगत मन आसा ।

ऋद्धि सिद्धि तुरतै मिलि जाई । जो जन ध्यान धरै मनलाई ॥

जो देवी का दर्शन चाहे । हदय बीच याही अवगाहे ॥

प्रेम सहित पंडित बुलवावे । शुभ मुहूर्त निश्चित विचारवे ॥

अपने गुरु से आज्ञा लेकर । यात्रा विधान करे निश्चय धर ।

पूजन गौरि गणेश करावे । नान्दीमुख भी श्राद्ध जिमावे ॥

शुक्र को बाँयें व पाछे कर । गुरु अरु शुक्र उचित रहने पर ॥

जब सब ग्रह होवें अनुकूला । गुरु पितु मातु आदि सब हूला ॥

नौ ब्राह्मण बुलवाय जिमावे । आशीर्वाद जब उनसे पावे ॥

सबहिं प्रकार शकुन शुभ होई । यात्रा तबहिं करे सुख होई ॥

जो चह सिद्धि करन कछु भाई । मंत्र लेइ देवी कहँ जाई ॥

आदर पूर्वक गुरु बुलावे । मन्त्र लेन हित दिन ठहरावे ॥

शुभ मुहूर्त में दीक्षा लेवे । प्रसन्न होई दक्षिणा देवै ॥

ॐ का नमः करे उच्चारण । मातृका न्यास करे सिर धारण ॥

षडङ्ग न्यास करे सो भाई । माँ कामाक्षा धर उर लाई ॥

देवी मन्त्र करे मन सुमिरन । सन्मुख मुद्रा करे प्रदर्शन ॥

जिससे होई प्रसन्न भवानी । मन चाहत वर देवे आनी ॥

जबहिं भगत दीक्षित होइ जाई । दान देय ऋत्विज कहँ जाई ॥

विप्रबंधु भोजन करवावे । विप्र नारि कन्या जिमवावे ॥

दीन अनाथ दरिद्र बुलावे । धन की कृपणता नहीं दिखावे ॥

एहि विधि समझ कृतारथ होवे । गुरु मन्त्र नित जप कर सोवे ॥

देवी चरण का बने पुजारी । एहि ते धरम न है कोई भारी ॥

सकल ऋद्धि – सिद्धि मिल जावे । जो देवी का ध्यान लगावे ॥

तू ही दुर्गा तू ही काली । माँग में सोहे मातु के लाली ॥

वाक् सरस्वती विद्या गौरी । मातु के सोहैं सिर पर मौरी ॥

क्षुधा, दुरत्यया, निद्रा तृष्णा । तन का रंग है मातु का कृष्णा ।

कामधेनु सुभगा और सुन्दरी । मातु अँगुलिया में है मुंदरी ॥

कालरात्रि वेदगर्भा धीश्वरि । कंठमाल माता ने ले धरि ॥

तृषा सती एक वीरा अक्षरा । देह तजी जानु रही नश्वरा ॥

स्वरा महा श्री चण्डी । मातु न जाना जो रहे पाखण्डी ॥

महामारी भारती आर्या । शिवजी की ओ रहीं भार्या ॥

पद्मा, कमला, लक्ष्मी, शिवा । तेज मातु तन जैसे दिवा ॥

उमा, जयी, ब्राह्मी भाषा । पुर हिं भगतन की अभिलाषा ॥

रजस्वला जब रुप दिखावे । देवता सकल पर्वतहिं जावें ॥

रुप गौरि धरि करहिं निवासा । जब लग होइ न तेज प्रकाशा ॥

एहि ते सिद्ध पीठ कहलाई । जउन चहै जन सो होई जाई ॥

जो जन यह चालीसा गावे । सब सुख भोग देवि पद पावे ॥

होहिं प्रसन्न महेश भवानी । कृपा करहु निज – जन असवानी ॥

॥ दोहा ॥

कर्हे गोपाल सुमिर मन, कामाख्या सुख खानि ।
जग हित माँ प्रगटत भई, सके न कोऊ खानि ॥

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